Tuesday, October 28, 2008

दिवाली मुबारक

मैं तुम्हे मरने नहीं देता...
ऐसे-जैसे-तैसे
कैसे भी करके थोड़ी-थोड़ी
जान बख्श देता हूँ तुम्हे...

मेरी दिवाली में तुम्हे
आरती,दीया, मिठाई,प्रसाद..
सब बना लेता हूँ...
भजन तुम्हारी आवाज़ में
महसूस करता हूँ...

हर कोई जब दिवाली मुबारक
चिल्ला-कर गले मिलता है...
तुम्हारे घर की दीवार याद आती है.....
वो तुम्हारी तीन साल की फोटो
और पता नहीं कैसे तुम जुड़ जाती हो
हर एक रूखेपन से
जो मेरे अंदर से या मुझे छूकर गुज़रती है

फिर होली में भी तुमने ही
कसम खा रखी है...
रंगों में तैरती रहती हो..
मेरी धुंधली आँखों के सामने

प्यार का सवाल नहीं उठता...
क्यूँकी मैं पहले ही
बहुत बेईज्ज़त हो चूका हूँ..
बहुत हार चूका हूँ..
टूटा हूँ बहुत अंदर तक
बहुत चोट लगी है..
रोना नहीं है...
पर तुम्हे नफरत करने की
ख्वाहिश उट्ठी तो ज़रूर थी दिल में...

कोई और तुम्हारे सपने
सजाता है..
लिखता है तुम्हारे बारें में...
वो मैं नहीं हूँ...

क्यूँकी॥
मैं वो हो ही नहीं सकता हूँ...

मेरे दिवाली,होली,दशहरा में
अपनी टांग क्यूँ अडाती हो...
मैं तन्हा-वीरान नहीं हूँ..
और नाही देवदास बनने का शौक है मुझे...

मगर थोड़ा पागलपन suit करता है..
तुमपर जैसे रूखापन suit करता है..
ताकि मेरे आने वाली novel में
तुम ही नायिका बन सको...

पर जो भी तुमको...
दिवाली मुबारक!!!