Thursday, February 19, 2009

अगले चौराहे ,तिराहे ,दुराहे की तरफ़

मैं हूँ अपनी कमजोरी
अपने कदम गिनते -गिनते
थक जाता हूँ

फ़िर ख़ुद को वहीं
दोराहे ,तिराहे , चौराहे पे
खड़ा पाता हूँ ..

अपने तश्तरियों पे
अपने रसोई की खूब जमाता हूँ
आने -जाने वालों को
भरपेट खिलाता भी हूँ

वही दोराहे , तिराहे ,चौराहे
वाले जब पेट भर दुआएं देते हैं
ख़ुद को भरा पाता हूँ

घंटे -दो -घंटे बाद फ़िर ख़ुद को
ना जाने क्यूँ भूखा पाता हूँ

एक दिन पकवानों से खेलने वाला
मेरी चाशनी पे चढ़ गया
मेरी तश्तरियों पर खींची हुई
हद से बढ़ गया

भाई .. हाथ में भर -भर खिलाता हूँ
और तुमसे कोई सवा भी तो नहीं पूछता
अच्छा लगे तो कहो वरना
छोड़ के चले जाओ वरना ...
कौन माँगता है तुमसे नई तरकीबें
चाशनी मीठी करने के

मैं जानता हूँ
हुनर तुम्हारा भी तुम्हारा
अपना कहाँ है
कितने रसोइयों की जासूसी की है तुमने
कितनों को चखा है बेईज्ज़त होकर

सिखाते क्यूँ हो मुझे फ़िर
उसे जो की समझ निखार लेता है
घंटे -दो -घंटे भर कर
छोटी -छोटी डकारों में छुपे तारीफों के लफ्ज़

चलो .. बदल लेता हूँ फ़िर से
अपने कदमों का बहाव
तुमसे अलग
अगले चौराहे ,तिराहे ,दुराहे की तरफ़ ...!!!