Thursday, December 13, 2007

बड़े कवि हो.. grammer तो ठीक कर लो

"कल तुम्हारी paintings देखी मैंने..
सारी....... "

अच्छा है..


"नहीं... अच्छी हैं...
बड़े कवि हो.. grammer तो ठीक कर लो"

मैं paintings की बात नहीं क़र रहा था..

"मगर मैं तो क़र रही थी.. ना.
चलो एक बात बताओ..
एक छोटी सी ख़ास बात नोट की है मैंने.."

अब तुम्हारी खासियतों ने हमारी
आँखों पर पर्दा डाल दिया है..
कुछ गलत-शलत हो गया हो..
खुद ही ठीक कर लो..

"अरे ऐसा कुछ नहीं..
बस ये बताओ की किसी भी
character की आँखें क्यूँ नहीं बनाते..?"

पहले ये बताओ इसमें बुराई क्या है..

"रंग-रोगन.. साज-सज्जा... सब फीकी-फीकी लगती है..
आँखों से ही तो express करना होता है..
है कि नहीं...."

simple सा reason है..

तुम्हारी आँखें नहीं बना पता..
कितनी भी अच्छी आँखें बना लूं..
तुम्हारे चंचल नयनों सी बात बन ही नहीं पाती..
सो मिटा देता हूँ...

"अच्छा जी... मक्खन तो नहीं लगाया जा रहा?"

ये काम तो आपका है..

सबके लिए ये वीरानी है..
मैं तो हर एक किरदार में
तुम्हारी आँखें देख ही लेता हूँ...


"ऐसा मत बोला करो..शर्मा जाती हूँ..
अपनी आँखों से ही प्यार होने लगता है..
और तुम धुंधले होते जाते हो.."

ऐसा जैसे.. तुममें और मुझमें कुछ फर्क ही ना हो..

"नहीं.. ऐसे जैसे..!!
'ऐसा जैसे' नहीं...
समझे.."

पहले चाय पी लेते है.. फिर सोचेंगे..!!

मैं खुद तुम्हारे पास आया हूँ..
थोड़ी तो मदद करो दो..
अब ये गुस्सा होने का नाटक बंद करो..
और चुपचाप चाय ले आओ मेरे लिए..

"नहीं लुंगी.. नहीं लुंगी.. नहीं लुंगी
जब तक के गिद्गिदाकर माफ़ी नहीं मांग लेते.."

ऐसी बात है?
"हाँ बिलकुल ऐसी ही बात है.."
वैसे एक बात बताऊँ..
कल तुम अपनी diary

मेरे घर पर ही भूल आई थी...

"तो?"
तो क्या..
मैंने सब-कुछ पढ़ लिया..

"सच्ची??"
हाँ.. हाँ..
"तुम बड़े गंदे हो...
पर बताओ तो सही तुमने ख़ास ऐसा क्या

पढ़ लिया..
जो मैंने तुम्हे नहीं बताया हो.. बोलो.. "

यही तो बात है...
तुम मुझसे कुछ छुपाती ही नहीं हो..
अरे कुछ तो होना चाहिए..
जो मुझे तुमें interested रखे..

"वाह जी.. अब आपको interested रखने के लिए
मुझे क्या करना पड़ेगा..?"

अरे ज्यादा डिमांड थोड़े ही ना कर रहा हूँ
बस चाय-biscuit खिला दिया करो यदा-कदा..
बंदा खुश...!!!

"अब बेशर्मों की तरह आ ही गए हो तो.."

तो गिड़-गिड़ाने का plan cancel..

"पहले चाय पी लेते है.. फिर सोचेंगे..!!"

Tuesday, December 4, 2007

कोयला रंगों से सस्ता है

कैनवास पे छोटे को..
कोयला रगड़ते देख लिया...
बड़े चित्रकार... रंगों से खेलने वाले..
उन्हें पालने वाले.. उन्हें झेलने वाले..

छोटे की कृति देख बोले..
कैनवास तुम्हारा...
दिमागी बातें तुम्हारी...
तुमने कोयले से उतारी..

चलो ठीक है... अच्छा है..
अब क्या इसे रंगों में पलट दोगे..
ताकि मुझे और बाबा को..
समझ में आये.. के ये खूबसूरत..
और भी हो सकती है...
करके देखो... समझ का खेल है..
मज़ा आएगा...

"तो क्या आप पेंटिंग मज़े के लिए करते हैं..?"
बड़े कसमसा से गए... बोले हाँ भाई...
और तुम...
"मैं... शायद खुद को समझने के लिए..."

थोड़े रूखे हो कर बोले..
भाई.. थोड़ा कलर-वलर डाल दिया करो..
बात मानो तुम बहुत अच्छा बनाते हो..
लोग तारीफ़ भी करेंगे...

"तारीफ़ करें ना करें क्या फर्क पड़ता है..
वैसे भी कोयला रंगों से सस्ता है..
और ख़ास बात ये..
की कैनवास भी घटिया quality का लग जाये..
तो भी फर्क नहीं पड़ता.."


तुम पागल हो...
"और पेंटर भी.."

खजाने की चाबी

दौड़ क्या है...? खजाने की चाबी है..
जब समझ जाता है..
फर्क फरिश्तों और इंसानों में..
एक बदनसीब आदमी..


चलते रहना थकावट से भरा..
और दौड़ते रहना पागलपन से..
मगर फिर भी..
दौड़ते रहे तो लगता है..
जल्दी पहुँच जायेंगे..
अपनी खुशी के ठिकानों पर..
गोल्डेन कलर की चाबी सी लगती है...
मगर ताले की तलाश तो कभी हम..
करते ही नहीं..

सुबह थी.. झूठी सी वो

और मिली जगह कोई...
जैसे हंसी और किरकिरी.
धुप में वो और भी..
छरहरी लगने लगी..

जो ना उठता इस सुबह तो..
ये सुबह दिखती नहीं..
खूबसूरत थी सुबह और..
खूब वो थी और भी...

देखता उसको रहा जब..
मैं लगाके टकटकी..
वो दबी आवाज़ में..
एक पेड़ सी लगने लगी..

जाग उट्ठी कल्पना से...
सांस भी लेने लगी...
वो मुझे खुद से अलग..
अपनी तरह लगने लगी..


सुबह थी.. झूठी सी वो..
शाम भी झूठी लगी..
वो सामने हंसने लगी...
बातें मेरी सुनकर सभी..

वो आत्मा से जब निकलकर
मेरी आत्मा में सो गयी..
सुबह थी.. झूठी सी वो..
शाम भी झूठी लगी..

इस वक़्त

इस वक़्त पहरा है मेरी आँखों पर..
देख तो लेती हैं..
समझ नहीं पाती..


इस वक़्त पहरा है मेरी बातों पर..
लिख तो लेती है.. कागजों पर..
बोल नहीं पाती..



इस वक़्त पहरा है मेरे हाथों पर..
दिल पे हाथ तो रख लेती हैं..
मगर बढ़ते नहीं उसकी तरफ..

जब समझोगी

जब समझोगी छोड़ा जिसे वो...
शब्दों से ऊपर था..
तो खुद चुप्पी साध लोगी..
महीनों तक...

हिम्म्मत तुम भी ना जुटा पाओगी...
चेहरा निखारने की...
खिली-खिली रहोगी..
कपड़ों के दायरों में.. अपने आप को..
सूंघ भी नहीं पाओगी....

छिछोरापन लगेंगी..
ये फिल्मों की कहानियां..

जब समझोगी मेरा प्यार क्या है...

ये प्यार कैसा

ये प्यार कैसा...
पहन सकता है बातें कोई...
शिकायतों को उम्मीद में भी..
बदल सकता है...

सहेज के रख सकता है..
समर्पण के संवाद कोई...

बीते की पहेली सुलझ नहीं पाती..
आगे उसके सिवा कोई दिखता नहीं..

बस गड़े-गडाए उमीदों के सहारे..
स्याही चबा रहा है...
कागज़ वजन से दिल को
कस के दबा रहा है...

वो ना दूर से ढोल की आवाज़ लगती है
ना ही पास से ही शहनाई की दुकान
वो तो बस लाल-पीला धागा लगती है
बरगद से बांधा हुआ अरमान

ये प्यार कैसा है धड़कने सुन्न करा रखी हैं
धड से गर्दन तक पूरा दिल का इलाका
तुमसे वजह दो वजह बिना बातें करता है
और चुप हो जाता है सर्दियों सा बांका

ये प्यार ऐसा है
बिना तुक से शुरू है
बिना तुक के ख़तम!!

कुछ तो अजीब है तुम में...

ये जो रोज़.. खाने की मेज़ पर...
धड़कन उभर आती है बाहर..
वक़्त लगता है समझने में..

सब्ज़िओं में स्वाद उसी का आता है..
"आज तुम्हारे लिए... chocolate cake लायी हूँ.."
"आज घर ज़रूर आना.. ममा ने invite किया है...
पनीर से काम चल जायेगा ना महाशय.?"
कैसे कैसे सवाल पूछती हो...

हर होटल, restaurent और ढाबे में..
तुम्हारी याद आती है..
अरे प्यार ऐसा थोड़े ही ना होता है..

प्यार में लोगों की भूख ख़त्म हो जाती है..
यहाँ double हो गयी है..
कुछ तो अजीब है तुम में...

तुम साबित क्या करना चाहते हो??

"तीन दिन की छुट्टी है... क्या करोगे..??"
घास चरने का प्लान है... join करोगी क्या..?
"हमें आपने गाय समझ रखा है..??"
अब क्या कहते उनसे... की हाँ भई..
दिल से तो तुम एक भोली-भली गाय ही हो...

ये अलग बात है
की सर पर सींग नहीं है..
और बाल भी इतने छोटे कटाकर रखे है की...
अगर सिंग होते तो दिख ही जाते...


"you know.. मुझे लगता है है की तुम ना
मुझसे थोडा डर-डरके बात करते हो..."
क्या कहता आजकल हवा ही ऐसी चल रही है..
दिल में हमेशा गुद-गुदी लगी रहती है...
ऊपर से गाय कितनी भी भोली-भाली हो..
एक uncertainty का factor तो बना ही रहता है..


फ़ोन पे बातें इतनी...
की अब तुम्हारी आवाज़ भी रंभाने सी लगती है..
और खैर पूजा तो तुम्हारी करता हूँ..

"तो तुम साबित क्या करना चाहते हो??"
यही के तुम गाय हो...:)

हम दोनों अजीब हैं.. agreed!!

चलो झगड़ लेते हैं...
आज फिर से..
बहुत दिनों से ,
सुबह खारी नहीं हुई....
तुम भी बैठे-बैठे बोरे हो रही हो....
और मैं फ़ालतू में
गहराईयों की तलाश कर रहा हूँ..

चलो समझते हैं मिलकर आज..
के हम दोनों सबसे अजीब क्यूँ हैं..
क्यूँ तुम एक normal प्रेमिका नहीं हो..
और मैं क्यूँ abnormal प्रेमी हूँ...


मैं तुम्हारी सारी बातें याद रखता हूँ..
"अच्छा.. तो बताओ मेरा नाम क्या है??"
आंसूं..... बरसात.. कुछ ऐसा ही है..
भीगी सी कोई अनुभूति जैसे...
"आय-हाय... कैसे relate कर लेते हो इन सबको
और इन सबसे मुझको??"


आसान है.... सुबह उठकर सबसे पहले
तुम्हे morning wish करता हूँ..
और फिर नींद तक तुम मुझे छोडती ही नहीं हो..

"मेरा तो पता नहीं..
पर तुम ज़रूर abnormal हो..!

ना-जाने इस पागल के चक्कर में कैसे पड़ गयी...?"

मैं बताता हूँ..
ऐसे जैसे... ऐसे जैसे...
बकरी कसाई के चक्कर में पड़ जाती है...!!!

"वाह-वाह क्या बात है जनाब..!!
जो तुमसे प्यार करे वो normal कैसे हो सकता है...
हाँ तो मिस्टर.. you were right..!
हम दोनों अजीब हैं.. agreed!!"

Some IMPORTANT lessons....

01. money is for EXCHANGE purpose only... it cant provide you something just for free....
u need to exchange something.... whether its your skill.... your honesty.. integrity..
your conscience.... it can just let you exchange.... NOTHING for free....

02.The way you smile and the frequency of it... sud in a way reflect your relationship with
yourself... anyways smile a lot...

03.People in general don't want conflicts... in their own mind.. most of the times...

04.We all want stimulus... something that can excite us... that can make us believe that we have
a purpose.... it helps...

05.What we can achieve are just opinions... not the truth.. it is SOMETHING very elusive..

Sunday, September 16, 2007

स्वाहा

देव ने शिलाओं पर,
चित्त सा अंकित किया,
नाम तुम्हारे प्रणय-आस्था का;
काल भी संकुचित हो,
बैठा रहा,
ज्वार-तले.

धैर्य ने ऐश्वर्य के कंदराओं से कन्धों पर,
लाद दिया प्रेम -भार,
और वो व्यक्त करती रही आभार.

आया नहीं धैर्य.. बीते धैर्योचित युग सभी..
ऐश्वर्य निर्धन बनी बोझ लिए..
फिर रही..
हो गयी प्रेम में उसकी

आत्मा स्वाहा.. !!

मेंढक- कवि

मैं यहाँ.. वहां भी..
कूदता रहता हूँ.. मेंढक बनकर..
बारिश की उम्मीद में..
नाचने वाली मोरनी की उम्मीद में..

मुझे प्यार है उससे..

कैसे कहूं मैं बदशक्ल..

नाले में रहने वाला..
मच्छरों और कीट-पतंगों
पर ज़िन्दगी
गुजारता हूँ..
कैसे कहूं..

वहां कई मेंढकीयां है..

जो मुझे
खूबसूरत मानती है..

कभी-कभी
महसूस भी करा देती हैं..

मगर..
मैं कैसे मान लूं..

कैसे कहूं उससे..

अगर कह भी दूं तो क्या..
मैं तो मोर नहीं बन पाउंगा कभी
और ना ही वो मेंढकी..
चलो बन जाता हूँ फिर मैं एक कवि
उससे लिख लिख कर
महसूस करता रहूँगा..
अपने नाले में ही..

सांस रोककर.. दिल थामकर.!!

दिल की बातें...!

कैसे कहूं दिल की बातें..
क्या तुम सुनना भी चाहती हो..
आज फिर जाना है तुम्हे..
किसी के बर्थडे पर..
कल फिर जा रही हो.. छुट्टियों में घर अपने..
तम्मना ही रह जाती है हर बार..
सुनने कभी तुम खुद ही आते..
ये दिल की बातें...!

कभी कभी उतार देता हूँ..
कागज़ पर सीने को..
पर कमबख्त दिल..
उसमे उतर ही नहीं पाता..
क्योंकि तुम कागज़ पर उतर नहीं पाते..
बताऊँ कैसे तुम्हे ये सब..
दिल की बातें..

अब परसों की ही बात ले लो..
शाम को तुम्हारे रूम आया था..
मगर तुम्हारी चाची कभी..
अकेले तो छोड़े..
चिपक जाती है.. लेकर दुनायादारी की सारी बातें..
मगर तुम भी यार.. क्या क़र लेते..
कैसे उन्हें समझाते..
पहले खुद तो समझ जाओ..
ये दिल की बातें..

Saturday, September 15, 2007

एक ख़त तेरी उम्मीद में

एक ख़त तेरी उम्मीद में....
गलती से..
फिर कहता हूँ गलती से..

भेज दिया था घर तुम्हारे..
क्या पता था मुझे..
उस वक़्त भी
फ़ोन का cultutre ही ज्यादा popular था..

सो इंतज़ार करता रहा..
पर जवाब क्या..

जवाब का hint भी नहीं आया.

मगर फिर भी..
आस और उम्मीद
तो लगी ही रहती है..

अरे भाई जब address लिया है..
तो कभी ना कभी तो लिखेगी ज़रूर..

मगर जब नंबर माँगा था.. तो
मैंने सर झुकाकर कहा था..

घर पे फ़ोन नहीं है..
शायद वहीँ कुछ अखर गया था तुम्हे..


और आज तक वो
अकड और अखर गयी नहीं..
तुम अब भी वैसी ही..

उम्मीद से भरी..
खूबसूरत लिफाफे में पड़ी..

मेरी चिट्ठी हो..
जिसे उर्दू में शायर ख़त कहा करते हैं..

खता के कितने करीब.. ये ख़त..!!

बस

बात उन दिनों की है..
जब बस्ता लटकाए..

चेहरे पे नींद और आँखों में
खीज भरकर...

सुबह-सुबह साढ़े-छः बजे...
पकड़ा करते थे बस इंदौर की.. महू से...
वो भी पढ़ते थे हमारी ही coaching में..
ना उनको ना हमको आता
कुछ interest था teaching में..

बस बुराईयाँ करते थे.. टीचरों की..
और दिन-रात पढने वालों खच्चरों की...
ठंडी हवा.. सर्दी-जुकाम..
और जबान पे बस उसका ही नाम..
हाय.. वो दिन भी आया..
जब बस हमारा..
एक और बस से टकराया..

साफ़ साफ़ शब्दों में..
मरने से पहले..
वो "help me" भी ना चिल्ला सकी..

और ना ही मैं
झल्ला सका उस बस पर...

या उस अगली बस पर...!!

बस थोडा सा प्यार

घिरे रहते.. सपनो में..
दरवाज़े के बाहर पड़ा अखबार..
और दूध की bottle..
कर रहे हैं इंतज़ार..
उठ जाओ.. और करो उनसे भी बस थोडा सा प्यार..

उलझे रहे कल-आज और कल के चक्कर में..
चलो आज मत फूंको एक भी ciggarete..
फूँक दो बुरी आदतों को..
और आज रसगुल्लों पर टपकाओ लार..
उन्हें भी दो बस थोडा सा प्यार..

आज थोडा सा जल्दी उठकर.. मंदिर चले जाओ..
कुछ देर बैठ जाओ..
और मत खरीदो पाव-दो पाव पेड़े..
मगर लेलो अगर कोई श्रध्हा से देदे..
सह लो थोड़ी सुबह की हवा की मार..
देदो भाई.. उन्हें भी बस थोडा सा प्यार..

मत बांधो खुद को आज लय-ताल में..
लिख दो कुछ भी अनाप-शनाप..
जिसे जो समझना हो.. समझे वो आप..
मत करो दुसरे के intellect पे उपकार..
दे दो थोडा खुद को भी प्यार..

सिर्फ़ इज्ज़त करें

सोचकर ही सही
देती तो थी
तुम जवाब ..

और सवालों के
सलाखों के पीछे
जला-जला सा ..

खड़ा-खड़ा सा
मैं ही तो था |

खद्दर में लाया था
उम्मीदें लपेटकर ..

सत्याग्रह से inspire होकर ...
बहुत देर रुका भी तो रहा था ..
बहुत कुछ हल्का-फुल्का

झेला भी तो सही
पर तुम देखती ही नहीं थी ..

और कोशिश भी तो नहीं की
कभी तुमने
...
बदशक्ल भी नहीं हूँ ...
और नकारा भी नहीं

मैं rejection की वजह
समझ सकता नहीं ..

जो मैं सोचता रहा हूँ ..
वो ग़लत हो जाए ..

तो बढ़िया है
थोड़ा अब भी पसंद करता हूँ ..।
उस एक ऊपर वाले को
जो कहानियाँ बुनता रहता है

तुम्हे पाने की कोशिश में
ज़बान की
सारी खारिश मिटा चुका हूँ ..

तो कैसे कहूं .... तो कैसे बकूं ..
कि हर रात
दिल से खून निकलता है ..
हर सुबह ..

गर्दन अकडी रहती है ..
मैं बीमार रहने लगा हूँ ..
थोड़े आँसू टपका दो मेरे लिए..


रहने दो पर ..
परेशानी और बढ़ जायेगी ..

भीख नहीं चाहिए ..
और फ़िर
तुम भी तो गरीब हो जाओगी
पर फ़िर भी
बाँट तो सकते ही हैं हम आपस में
प्यार .. रूतबा...
और इज्ज़त ..

सिर्फ़ इज्ज़त करें
तो भी काम चल चलेगा ...!!!

आँखें और चाय...

बैठा था यूँ ही..
शतरंज खेल रहा था..
चाल मेरी ही थी..

सोचने में व्यस्त..
अस्त-व्यस्त..

कहा मैंने "यार
थोड़ी चाय-शाई तो भिजवाओ"..

उसने कहा.."अब मैं खेलूं यहाँ क़ि
चाय बनाने जाऊं.."

मैंने सोचा "चाय की क्या ज़रुरत है..
जब बैठी हो तुम सामने.."

और कहा मैंने.. "खेल वगरह तो लगा ही रहेगा..
चाय बार-बार
थोड़े ही ना मिलेगी.. वो भी मुफ्त में.."

वो बोली
" जनाब आप हार जाओ जल्दी-जल्दी..
बस चाय हाज़िर हो जाएगी.."


बस क्या था फिर..

अगली ही चाल में तपाक से..
ले आया अपना राजा उसकी रानी के सामने..
जहाँ से भागने की कोई जगह नहीं...

थोड़ी देर देखती रही वो मुझे.. अपलक..
बस वहीँ मर गया था मैं..
और आज तक दुबारा कोई चाल नहीं चली..
चाय तो मिल गयी..
पर दुबारा वो आँखें नहीं मिली॥

एक बार को सोचो तो सही

थोड़े से पागल.. हठीले भी..
आँखें ये गीली-गीली भी..
फिर कल तुमने इनकार कर दिया..
और ये एक और बार..

टूटा है मेरा दिल...
फिर रात भर सोचता रहा..
माफ़ी मांग लूं तुमसे..

और फिर से कह दूं..
हम अच्छे दोस्त तो बने रह ही सकते हैं...
जबके मैं भी जानता हूँ
की हम कभी भी सिर्फ अच्छे दोस्त नहीं बने रह सकते..
प्यार करता हूँ तुमसे... कितनी बार समझाऊँ ..
मेरी हंसी को मज़ाक में मत लो..
बहुत आहें हैं इनमें..
डरता हूँ कहीं बद्दुवायें ना देने लगे..
तुम्हे और मेरे भरोसे को..
फिर सुबह धीरे धीरे संभल जाता हूँ..
कहता हूँ खुद से ही..
एक बार को सोचो तो सही...

मौत के बाद..

आँखें खोंले... बंद किये..
फर्क क्या पड़ना है.
किसे ये सब पढना है.
सोच में सबकी परेशानियाँ है..
किसी को कर्मकांड का
किसी को मेहमानों का सोचना है..

और बाकियों को
अपने व्यस्त जीवन से
छुट्टी लेकर श्राद्ध में शरीक होना है..


तो भाई लाश का कौन सोचे..

और सोचे...
उसकी इच्छा क्या है..
मतलब क्या थी...
!!

हां... मैं भी busy,
तुम भी busy..
busy relatives भी...
आंसूं बहाने में...
!!
और हम उलझे उलझे
दुखी होने के बहाने में...

चलो लेता हूँ नींद मैं भी..

















देखना और सीखना..

फर्क करना..
मति की ढ़ेरी पर..
बैठकर.. सोचकर..
और संभलकर ज़बान की लम्बी छलांग को..
कुछ कहना.. आदतों में जो ना बंधा हो..
बहुत कठिन है.. ह्रदय की संरंचना



नींद को तैयार है सम्बन्ध मधुर..

स्वागत करो कुम्हारों की औलादों...!!
आज माटी फिर कुचली जाएगी...
मन फिर से चाक पर सजेगा..

आगे तुम दे ही दोगे आकार...

चलो लेता हूँ नींद मैं भी..
बिन देखे.. बिन सीखे.. बिन सोचे..
तुम्हारी कला क्या है??

Are u upto something??

No... my dear... not up to anything......
its perfectly o.k. with me... the time required for reassurance...
and for that matter assurance...
n about my perceived "literary talents".... its nil.......
u r trying 2 meet nothingness...... its me who's important....
n not the words in which i express myself...................
n in case.....
its the mind that matters most.... a subtle mind... or maybe an aggressive one.... or an artistic one...... or may b as i say....
nothing at all.... just pretensions....
anything or nothing.......... a game of perception u see!!!
keep smiling...

मैं तो माँझी हूँ मँझधार का

ना मैं इस ना उस पार का ,
मैं तो माँझी हूँ मझधार का .
डूबा नहीं जीवन -जल तरंगों में मैं ,
ना जीत की खुशी ना गम मुझे हार का
मैं तो माँझी हूँ मँझधार का

है मुझे जीवन -जल प्रिय
चाहे हो नद का या हो पारावार का
ना महलों की शोभा है ना सरोज की शान है
मेरे हाथ लगा है केवल ध्वनित सुख कागार का .
मैं तो माँझी हूँ मँझधार का


ना दुखाधिक्य की शुष्क हवा
ना सुखाधिक्य के ज्वार सा ..
विद्यमान है सत्य-समाहित इनमे
मेरे जीवन आधार का ..
मैं तो माँझी हूँ मँझधार का

मुझमें बसा है कोई.. बन प्रेरणा किसी की ..
मैं तो हूँ केवल यथार्थ उस स्वप्न साकार का .
मुझमें क्षितिज का स्वप्न है.. मुझमें समंदर धार का ..
मैं स्वप्नदर्शी हूँ व्योम-तट के मेरे स्वप्न संसार का ..
मैं तो माँझी हूँ मँझधार का ..