एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं
थे वधिर माने ये कर्ण
फिर भी कंपा था कुछ वहीं
ना राख थी ना धुल थी
ना धूम्र ही तो था कहीं
फिर भी कहीं दुर्गन्ध है
मन है जला कल्पित नहीं
एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं....!!
थी धैर्य कि क्यूँ वन्दना
जब प्रेम का कटता तना
चीत्कार करता था के
चित्रों में था उसका मन सना
वो सौम्य सी उठती
तरंगों में तुम्हारा गर्व था
बस प्रेम की वाणी में
जो झोंकता यूं सर्व था
मैं ह्रदय कि चाक में
रमता यूं ही ढोंगी बना
पर ढोंग में भी प्रेम था
जिसको किया तुमने मना
अब आलाप की ये वर्तनी
जानती तुमको नहीं
एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं......!!!
देखा तुम्हे हर कण में
यूं के एक शंका एक धवल
एक नयन के फूटने की
देर थी जाता संभल
मैं रोक रखूँ दृश्य को
इस झंझावत अदृश्य को
रोकूँ मैं कैसे ज्ञान-कुंठित
मुक्त-भक्त इस शिष्य को
वो तो करता अनुसरण है
जिसमें दिखता उसको मन है
वो देव ना जाने दैत्य ना जाने
तुमको माने अपना धन है
वह प्रणय निवेदन करता है
तुम मुस्कुराती बस रही
एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं......!!
यह क्या है जो तुम देखती
हो आधी गहरी दंग से
यह कैसे उछला पूर्ण
गर्जन दाब मनो मृदंग से
शैशव में तेरी चेतना का
भार मन ने जड़ लिया
अस्थियों में दस युगों का
प्रण-समर्पण भर लिया
अब वार करना है मुझे
इन शब्दों के प्रपंच पर
और है जलानी दर्प की
लंका मुझे इस मंच पर
यह आत्मा से उपजी है
यह मौन में ही है बही
एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं ....!!