Monday, February 23, 2009

थारी सुन ली ..थारी सुन ली

थारी सुन ली ..थारी सुन ली
पर उसकी ही बस सारी धुन ली
मिटटी -पत्थर , सोना -खद्दर
अपनी चद्दर आप ही चुन ली

हँसी ठिठोली , बारिश गाने
बरसातों में रोज़ नहाने
कई सुनहरी सुबह छोड़ी
बादल की बेकारी बुन ली
थारी सुन ली , थारी सुन ली

चमक -चमक के धमकाया भी
अंधेरों को भरमाया भी
भर -भर मन में आधी मूरत
एक पायल की मोटी सिल्ली
खूब खोल के भूखा रह -रह
नमक पसीने की मीठी तह
तीन टमाटर एक मिर्च के
साथ जलाई पेट की झिल्ली
रोक बाहरी , रोक सौ खड़ी
सोच के डब्बे की किरकिरी
उसको खाया उसको पिया
सन्यासी की छवि भी धर ली
थारी सुन ली , थारी सुन ली ....!

Saturday, February 21, 2009

बाँट लेंगे चाँद दोनों

"कितनी आसानी से लिखते हो !!"
बाँट लेंगे चाँद दोनों

दौड़ती,
तुम सुबह से शाम हो जाती हो!
एक लम्बी-चौड़ी मुस्कराहट से
एक धीमी मुस्कान हो जाती हो...!
भागती यहाँ से वहां
"ऐसे जैसे किसी खेत में आग लगी हो"
और फ़िर गाँव की तुम
"सोचने दो.....ठकुराइन हो जाती हो |"
तुम्हारे लिए इतना झूठ लिखता हूँ
और तुम्हारा कहना
"तुम बस तारीफों पे बिकते हो |"
बाँट लेंगे चाँद दोनों |

कभी-कभी मज़ाक तुम्हे समझ नहीं आते हैं,
ज्यादातर बाद में तुम्हे तुम्हारे दोस्त ही समझाते हैं |
देर लौटती हो ,दूर तकती हो
"खिड़की के बाहर मुझे सारे नज़र आते हैं |"
मेरी बातों पर हँसती नहीं हो ,
नाराज़ हो जाती हो |
फ़िर गुस्से में आप सुस्त पड़ जाती हो
नींद में दबी-दबी
नींद में घुल जाती हो |
और तो और सपनों में पूछती जाती हो
"हर वक्त इतना खुश क्यूँ दिखते हो ?"
बाँट लेंगे चाँद दोनों |

Thursday, February 19, 2009

अगले चौराहे ,तिराहे ,दुराहे की तरफ़

मैं हूँ अपनी कमजोरी
अपने कदम गिनते -गिनते
थक जाता हूँ

फ़िर ख़ुद को वहीं
दोराहे ,तिराहे , चौराहे पे
खड़ा पाता हूँ ..

अपने तश्तरियों पे
अपने रसोई की खूब जमाता हूँ
आने -जाने वालों को
भरपेट खिलाता भी हूँ

वही दोराहे , तिराहे ,चौराहे
वाले जब पेट भर दुआएं देते हैं
ख़ुद को भरा पाता हूँ

घंटे -दो -घंटे बाद फ़िर ख़ुद को
ना जाने क्यूँ भूखा पाता हूँ

एक दिन पकवानों से खेलने वाला
मेरी चाशनी पे चढ़ गया
मेरी तश्तरियों पर खींची हुई
हद से बढ़ गया

भाई .. हाथ में भर -भर खिलाता हूँ
और तुमसे कोई सवा भी तो नहीं पूछता
अच्छा लगे तो कहो वरना
छोड़ के चले जाओ वरना ...
कौन माँगता है तुमसे नई तरकीबें
चाशनी मीठी करने के

मैं जानता हूँ
हुनर तुम्हारा भी तुम्हारा
अपना कहाँ है
कितने रसोइयों की जासूसी की है तुमने
कितनों को चखा है बेईज्ज़त होकर

सिखाते क्यूँ हो मुझे फ़िर
उसे जो की समझ निखार लेता है
घंटे -दो -घंटे भर कर
छोटी -छोटी डकारों में छुपे तारीफों के लफ्ज़

चलो .. बदल लेता हूँ फ़िर से
अपने कदमों का बहाव
तुमसे अलग
अगले चौराहे ,तिराहे ,दुराहे की तरफ़ ...!!!

Wednesday, February 18, 2009

तुम्हे पढता हूँ तो

एक गरीब के की खाता हूँ
मैं भी गरीब कहलाता हूँ ...
रोकता हूँ.. अफवाहों को..
पर तंगी से डर जाता हूँ..

मैं कोने में खड़ा-खड़ा
मिटटी लपेट कर पढता हूँ
हर रात तुम्हे...

केरोसिन के बोतल में
अपनी सारी महक डूबा देते हो ..
तुम्हे पढता हूँ
तो लिखने से घबराता हूँ .....