Saturday, September 15, 2007

एक ख़त तेरी उम्मीद में

एक ख़त तेरी उम्मीद में....
गलती से..
फिर कहता हूँ गलती से..

भेज दिया था घर तुम्हारे..
क्या पता था मुझे..
उस वक़्त भी
फ़ोन का cultutre ही ज्यादा popular था..

सो इंतज़ार करता रहा..
पर जवाब क्या..

जवाब का hint भी नहीं आया.

मगर फिर भी..
आस और उम्मीद
तो लगी ही रहती है..

अरे भाई जब address लिया है..
तो कभी ना कभी तो लिखेगी ज़रूर..

मगर जब नंबर माँगा था.. तो
मैंने सर झुकाकर कहा था..

घर पे फ़ोन नहीं है..
शायद वहीँ कुछ अखर गया था तुम्हे..


और आज तक वो
अकड और अखर गयी नहीं..
तुम अब भी वैसी ही..

उम्मीद से भरी..
खूबसूरत लिफाफे में पड़ी..

मेरी चिट्ठी हो..
जिसे उर्दू में शायर ख़त कहा करते हैं..

खता के कितने करीब.. ये ख़त..!!

बस

बात उन दिनों की है..
जब बस्ता लटकाए..

चेहरे पे नींद और आँखों में
खीज भरकर...

सुबह-सुबह साढ़े-छः बजे...
पकड़ा करते थे बस इंदौर की.. महू से...
वो भी पढ़ते थे हमारी ही coaching में..
ना उनको ना हमको आता
कुछ interest था teaching में..

बस बुराईयाँ करते थे.. टीचरों की..
और दिन-रात पढने वालों खच्चरों की...
ठंडी हवा.. सर्दी-जुकाम..
और जबान पे बस उसका ही नाम..
हाय.. वो दिन भी आया..
जब बस हमारा..
एक और बस से टकराया..

साफ़ साफ़ शब्दों में..
मरने से पहले..
वो "help me" भी ना चिल्ला सकी..

और ना ही मैं
झल्ला सका उस बस पर...

या उस अगली बस पर...!!

बस थोडा सा प्यार

घिरे रहते.. सपनो में..
दरवाज़े के बाहर पड़ा अखबार..
और दूध की bottle..
कर रहे हैं इंतज़ार..
उठ जाओ.. और करो उनसे भी बस थोडा सा प्यार..

उलझे रहे कल-आज और कल के चक्कर में..
चलो आज मत फूंको एक भी ciggarete..
फूँक दो बुरी आदतों को..
और आज रसगुल्लों पर टपकाओ लार..
उन्हें भी दो बस थोडा सा प्यार..

आज थोडा सा जल्दी उठकर.. मंदिर चले जाओ..
कुछ देर बैठ जाओ..
और मत खरीदो पाव-दो पाव पेड़े..
मगर लेलो अगर कोई श्रध्हा से देदे..
सह लो थोड़ी सुबह की हवा की मार..
देदो भाई.. उन्हें भी बस थोडा सा प्यार..

मत बांधो खुद को आज लय-ताल में..
लिख दो कुछ भी अनाप-शनाप..
जिसे जो समझना हो.. समझे वो आप..
मत करो दुसरे के intellect पे उपकार..
दे दो थोडा खुद को भी प्यार..

सिर्फ़ इज्ज़त करें

सोचकर ही सही
देती तो थी
तुम जवाब ..

और सवालों के
सलाखों के पीछे
जला-जला सा ..

खड़ा-खड़ा सा
मैं ही तो था |

खद्दर में लाया था
उम्मीदें लपेटकर ..

सत्याग्रह से inspire होकर ...
बहुत देर रुका भी तो रहा था ..
बहुत कुछ हल्का-फुल्का

झेला भी तो सही
पर तुम देखती ही नहीं थी ..

और कोशिश भी तो नहीं की
कभी तुमने
...
बदशक्ल भी नहीं हूँ ...
और नकारा भी नहीं

मैं rejection की वजह
समझ सकता नहीं ..

जो मैं सोचता रहा हूँ ..
वो ग़लत हो जाए ..

तो बढ़िया है
थोड़ा अब भी पसंद करता हूँ ..।
उस एक ऊपर वाले को
जो कहानियाँ बुनता रहता है

तुम्हे पाने की कोशिश में
ज़बान की
सारी खारिश मिटा चुका हूँ ..

तो कैसे कहूं .... तो कैसे बकूं ..
कि हर रात
दिल से खून निकलता है ..
हर सुबह ..

गर्दन अकडी रहती है ..
मैं बीमार रहने लगा हूँ ..
थोड़े आँसू टपका दो मेरे लिए..


रहने दो पर ..
परेशानी और बढ़ जायेगी ..

भीख नहीं चाहिए ..
और फ़िर
तुम भी तो गरीब हो जाओगी
पर फ़िर भी
बाँट तो सकते ही हैं हम आपस में
प्यार .. रूतबा...
और इज्ज़त ..

सिर्फ़ इज्ज़त करें
तो भी काम चल चलेगा ...!!!

आँखें और चाय...

बैठा था यूँ ही..
शतरंज खेल रहा था..
चाल मेरी ही थी..

सोचने में व्यस्त..
अस्त-व्यस्त..

कहा मैंने "यार
थोड़ी चाय-शाई तो भिजवाओ"..

उसने कहा.."अब मैं खेलूं यहाँ क़ि
चाय बनाने जाऊं.."

मैंने सोचा "चाय की क्या ज़रुरत है..
जब बैठी हो तुम सामने.."

और कहा मैंने.. "खेल वगरह तो लगा ही रहेगा..
चाय बार-बार
थोड़े ही ना मिलेगी.. वो भी मुफ्त में.."

वो बोली
" जनाब आप हार जाओ जल्दी-जल्दी..
बस चाय हाज़िर हो जाएगी.."


बस क्या था फिर..

अगली ही चाल में तपाक से..
ले आया अपना राजा उसकी रानी के सामने..
जहाँ से भागने की कोई जगह नहीं...

थोड़ी देर देखती रही वो मुझे.. अपलक..
बस वहीँ मर गया था मैं..
और आज तक दुबारा कोई चाल नहीं चली..
चाय तो मिल गयी..
पर दुबारा वो आँखें नहीं मिली॥

एक बार को सोचो तो सही

थोड़े से पागल.. हठीले भी..
आँखें ये गीली-गीली भी..
फिर कल तुमने इनकार कर दिया..
और ये एक और बार..

टूटा है मेरा दिल...
फिर रात भर सोचता रहा..
माफ़ी मांग लूं तुमसे..

और फिर से कह दूं..
हम अच्छे दोस्त तो बने रह ही सकते हैं...
जबके मैं भी जानता हूँ
की हम कभी भी सिर्फ अच्छे दोस्त नहीं बने रह सकते..
प्यार करता हूँ तुमसे... कितनी बार समझाऊँ ..
मेरी हंसी को मज़ाक में मत लो..
बहुत आहें हैं इनमें..
डरता हूँ कहीं बद्दुवायें ना देने लगे..
तुम्हे और मेरे भरोसे को..
फिर सुबह धीरे धीरे संभल जाता हूँ..
कहता हूँ खुद से ही..
एक बार को सोचो तो सही...

मौत के बाद..

आँखें खोंले... बंद किये..
फर्क क्या पड़ना है.
किसे ये सब पढना है.
सोच में सबकी परेशानियाँ है..
किसी को कर्मकांड का
किसी को मेहमानों का सोचना है..

और बाकियों को
अपने व्यस्त जीवन से
छुट्टी लेकर श्राद्ध में शरीक होना है..


तो भाई लाश का कौन सोचे..

और सोचे...
उसकी इच्छा क्या है..
मतलब क्या थी...
!!

हां... मैं भी busy,
तुम भी busy..
busy relatives भी...
आंसूं बहाने में...
!!
और हम उलझे उलझे
दुखी होने के बहाने में...

चलो लेता हूँ नींद मैं भी..

















देखना और सीखना..

फर्क करना..
मति की ढ़ेरी पर..
बैठकर.. सोचकर..
और संभलकर ज़बान की लम्बी छलांग को..
कुछ कहना.. आदतों में जो ना बंधा हो..
बहुत कठिन है.. ह्रदय की संरंचना



नींद को तैयार है सम्बन्ध मधुर..

स्वागत करो कुम्हारों की औलादों...!!
आज माटी फिर कुचली जाएगी...
मन फिर से चाक पर सजेगा..

आगे तुम दे ही दोगे आकार...

चलो लेता हूँ नींद मैं भी..
बिन देखे.. बिन सीखे.. बिन सोचे..
तुम्हारी कला क्या है??

Are u upto something??

No... my dear... not up to anything......
its perfectly o.k. with me... the time required for reassurance...
and for that matter assurance...
n about my perceived "literary talents".... its nil.......
u r trying 2 meet nothingness...... its me who's important....
n not the words in which i express myself...................
n in case.....
its the mind that matters most.... a subtle mind... or maybe an aggressive one.... or an artistic one...... or may b as i say....
nothing at all.... just pretensions....
anything or nothing.......... a game of perception u see!!!
keep smiling...

मैं तो माँझी हूँ मँझधार का

ना मैं इस ना उस पार का ,
मैं तो माँझी हूँ मझधार का .
डूबा नहीं जीवन -जल तरंगों में मैं ,
ना जीत की खुशी ना गम मुझे हार का
मैं तो माँझी हूँ मँझधार का

है मुझे जीवन -जल प्रिय
चाहे हो नद का या हो पारावार का
ना महलों की शोभा है ना सरोज की शान है
मेरे हाथ लगा है केवल ध्वनित सुख कागार का .
मैं तो माँझी हूँ मँझधार का


ना दुखाधिक्य की शुष्क हवा
ना सुखाधिक्य के ज्वार सा ..
विद्यमान है सत्य-समाहित इनमे
मेरे जीवन आधार का ..
मैं तो माँझी हूँ मँझधार का

मुझमें बसा है कोई.. बन प्रेरणा किसी की ..
मैं तो हूँ केवल यथार्थ उस स्वप्न साकार का .
मुझमें क्षितिज का स्वप्न है.. मुझमें समंदर धार का ..
मैं स्वप्नदर्शी हूँ व्योम-तट के मेरे स्वप्न संसार का ..
मैं तो माँझी हूँ मँझधार का ..