Friday, November 28, 2008

और फ़िर तुम सो रही होती.

रात बहुत नहा चुकी है
अंधेरे में
अब आसमान भी बहुत साफ़ है
मेरे छत के घेरे में


बीच इनके कोशिश करता हूँ
के थोड़ा सूनापन
महसूस करुँ

तुमसे, तुम्हारे खयालों से
और तुम्हारे हादसे से
थोड़ा तो डरूं

पर वही किस्सा
तुम इतने पास लगती हो
लगता है
अभी बोल उठोगी

"अरे.. सपने में
कुछ भी बड़-बड़ाते रहते हो.."

देखो सुना फ़िर तुम्हे मैंने..

"अरे जब बोल रही हूँ..
तो सुनोगे ही..

चलो अब आँखें खोलो..
और प्लीज़ कुछ सेंसिबल बोलो"

इतना करीब कैसे कोई
क्या सच है क्या सपना
ख़बर ही नहीं लगती है..

"इतना उल्लू कैसे कोई
कब जागे कब सोये
ख़बर ही नहीं लगती है"

अच्छा... रात को देर तक जागता हूँ
तो मुझे उल्लू बना दिया..

"नहीं... थोड़ा टेढा समझे..
उल्लू हो इसीलिए... देर तक जागते हो.."

और तुम... तुम क्या हो..

"ये तो
तुम भी नहीं जानते हो..
पर कोई इतना प्यारा
जिसके सपने को भी सच मानते हो.."

खुशफ़हमी में हो..

"हाँ.. तुम्हारी खुश-फ़हमी हूँ..
पर तुम्हारी हूँ..."

यानी झूठ हो...
"शायद.. पर तुम्हारे लाखों
बेकार सच्चाइयों
से लाख़-गुनी सच्ची....

है के नहीं??"

हो के नहीं...
ये भी तो जानना ज़रूरी है..

"तुम में और मुझमें तो
सिर्फ़ ख़याल भर की दूरी है..!!"

फ़िर सुनाई क्यूँ देती हो
इतनी साफ़
जैसे तुम मेरे ही अंदर हो
मेरा ही एक कोई
काम्पलेक्स आद्ध्यात्मिक पुर्ज़ा

दूरी कितनी
ख्याल भर की या नहीं
नहीं जानता..

पर तुमसे अलग होने की बात मैं
नहीं मानता...

"अब आगे मेरे लिए कुछ भी बोलना
ठीक नहीं होगा.."

क्यूँ??

"प्यार पर से परदा उठने लगेगा..
कुछ दोस्त तुम्हारे
और मेरी सहेलियाँ
डर जायेंगे..

फ़िर थोड़े-थोड़े डर से
शायद हम दोनों भर जायेंगे.."



अब भी डरती हो..

"प्रेम करती हूँ.."

जवाब नहीं दोगी...

" सब कुछ तो तुम्हारा है..
उन्ही में छांटकर
कोई प्यारा सा जवाब चुन लो.."

छोड़ो
सब उलझाकर
टुकडों में बाँटकर
इस धुंधलेपन में बस मेरी धुन लो

"चलो.. फ़िर दोहराते हैं.."

क्या?

"यही के वक्त फ़िरता
मैं भी फ़िरी होती..
थोडी सी गिरी होती"

वक्त फिरता..
मैं भी फ़िरा होता..
थोड़ी देर मरा होता..

"लौट आती सब सवालों के
जवाब लिए"

अपने हाथों में
तुम्हारे लिए ख्वाब लिए..!!!


"और फ़िर तुम सो रहे होते..
सुबह इतनी..
बिना ये सोचे..
के मैं गाज़ हूँ की
सिर्फ़ एक हार्मलेस आवाज़ हूँ"

और फ़िर तुम सो रही होती..
अपने ख़्वाबों की चादर में..
अपने सोच के अस्तबल से
बढ़िया कीमती घोड़े बेचकर..!!

Sunday, November 23, 2008

आज मेरी शादी है


आज मेरी शादी है
बंध जाऊंगा तुमसे अभी
कुछ देर में

ऐसे के फिर तुम उम्र के
कम-से-कम
अगले चालीस-पचास साल
सिर्फ मेरे कन्धों को
सात जन्मों का
सहारा समझोगी


ऐसे के फिर तुम
कढाई में
जब भी शिकायतें तलोगी
आधी तो बस
मेरे नाम से नमकीन
हो जाएँगी


ऐसे के फिर तुम भूखी रहोगी

मेरे नाम कि थोड़ी
मन्नतें करोगी
मैं भी तुम्हारे
ख्यालों में लिपटा
बाज़ार से रसगुल्ले
उठाऊंगा..
और तुम्हे जी-भर करो
खिलाऊंगा..


ऐसे के फिर तुम..
वादा करोगी बिना कुछ कहे
के रात को मेरे बिना
खाना नहीं खाओगी कभी..
और बच्चों को प्यार से
खिला-पिलाकर
सुला दोगी

ऐसे के फिर तुम
मोटी हो जाओगी
मेरे सामने
बच्चों के daddy
कहकर पुकारोगी
और मैं
थका-हारा ऑफिस से लौटा
तुमपर झुंझलाऊंगा


ऐसे के फिर मैं
तुम्हे अपने से अलग
कभी सोच ही नहीं पाउँगा
मेरी ख़ुशी, और मेरी खीझ में
तुम एक बराबर सी लगोगी..
मेरी ज़िन्दगी में धंस जाओगी ऐसे
के मैं स्कूल से लेकर कॉलेज तक की
अपनी सारी नायिकाओं को
भूल जाऊंगा
और सबमें सिर्फ तुम्हारा चेहरा पाउँगा..!!!

समझा करो

जब वक्त तुम्हारा ओढ़ लेता
लबादा खामोशी का
मेरी साँस भी
थोडी सहमा करती है
समझा करो....!!

फिक्र मुझे तुम्हारी नहीं
तुम्हारे उन ज़ज्बातों की है
जिन्हें जानता हूँ ..
जो हर एक पल मरती हैं ..
समझा करो....

मैं कौन.. एक छाप हूँ
मिट जाऊंगा.. जैसे ही
दीवार धुल जायेगी .. ये आँखें
बारीश से थोड़ा डरती हैं ..
समझा करो..

बहुत साफ़-साफ़ लिखा है सब यहाँ
पढने में आसान भी है ...
बात समझ पर आके रुक जाती है ...
जो बेसिर-पैर के सवाल पूछा करती हैं ...
समझा करो ...

रखा करो ख़ुद को खुश ज़रा
थोड़ा दिल से हंसा करो
ख़ुद को ज़रा गौर से देखा करो ..
उम्र ऐसे ही थोडी थोडी बढ़ती है ...
समझा करो ...

यहाँ दिल से बहुत कुछ
चिपका रहता है ...
बात गहरी भी होती है
जिसे छुआ नहीं जा सकता है ..
समझा करो ..

मौत और ज़िन्दगी के बीच
का फासला भी
ख़ुद को
ज़िन्दगी नाम से बकता है ...
समझा करो ..

कभी-कभी धुंध में
बहुत ताकत होती है ...
सालों से सोया हुआ दिल
गाढे धुंध में जगता है ...
समझा करो ...

दिल की सबसे गहरी बात ...
तुम ही समझ जाओ काफ़ी है ...
क्या मैं क्या दुनिया सारी
कौन तुम्हे सबसे ज्यादा समझता है ...
समझा करो ...

Tuesday, November 11, 2008

जब बात तुमसे होती है

जब भी बात तुमसे होती है ...
सूरज ,चाँद ,बागीचे...
साले सब हरे हो जाते हैं ...

दोस्त सी बन जाती है
मेरी हर तकलीफ.. कुछ देर
सारे पता नहीं कहाँ खड़े हो जाते हैं..


बहुत प्यारी लगते हैं ..
अब भी ..
तुम्हारे अल्फाजों के बीच
जो तुम धीरे धीरे उभरती हो ..

बहुत कमज़ोर नज़रों का
बहाना करके
तुम्हारा चश्मा पहन लेता हूँ ..
कुछ देर रौशनी के करतब
देखता हूँ..
तुम्हारी मीठी-मीठी आंखों से

मेरी चादर जम गई है...
उठाकर फेंका है
मैंने गहराइयों के परदों को..
ताकि देख सकूं ...
मेरे बिना तुम कैसी हो
सामने तुम्हारा मैं..
वैसा जैसा
जैसा वैसे मैं हूँ ...
क्या तुम मेरे मैं -सी हो ..

मेरे सपनों ने
की है कितनी तरफदारी
तुम्हे लेकर अक्सर हो जाती है ..
सपनों से मारा-मारी ..

तुम बनी हो अब तक ..
sunlight से ..
सूरज से बेदखल ..

बनी रहो...मुझ तक
पहुँच ही जायेंगे
तुम्हारे मुस्कुराहटों के पल..

जब हाथ में मन्नतें लेकर
खुशी माँग के
हँस पडोगी ...
और अपने दाँतों पर
खुशी टांग के
हँस पडोगी ....!!!

Tuesday, October 28, 2008

दिवाली मुबारक

मैं तुम्हे मरने नहीं देता...
ऐसे-जैसे-तैसे
कैसे भी करके थोड़ी-थोड़ी
जान बख्श देता हूँ तुम्हे...

मेरी दिवाली में तुम्हे
आरती,दीया, मिठाई,प्रसाद..
सब बना लेता हूँ...
भजन तुम्हारी आवाज़ में
महसूस करता हूँ...

हर कोई जब दिवाली मुबारक
चिल्ला-कर गले मिलता है...
तुम्हारे घर की दीवार याद आती है.....
वो तुम्हारी तीन साल की फोटो
और पता नहीं कैसे तुम जुड़ जाती हो
हर एक रूखेपन से
जो मेरे अंदर से या मुझे छूकर गुज़रती है

फिर होली में भी तुमने ही
कसम खा रखी है...
रंगों में तैरती रहती हो..
मेरी धुंधली आँखों के सामने

प्यार का सवाल नहीं उठता...
क्यूँकी मैं पहले ही
बहुत बेईज्ज़त हो चूका हूँ..
बहुत हार चूका हूँ..
टूटा हूँ बहुत अंदर तक
बहुत चोट लगी है..
रोना नहीं है...
पर तुम्हे नफरत करने की
ख्वाहिश उट्ठी तो ज़रूर थी दिल में...

कोई और तुम्हारे सपने
सजाता है..
लिखता है तुम्हारे बारें में...
वो मैं नहीं हूँ...

क्यूँकी॥
मैं वो हो ही नहीं सकता हूँ...

मेरे दिवाली,होली,दशहरा में
अपनी टांग क्यूँ अडाती हो...
मैं तन्हा-वीरान नहीं हूँ..
और नाही देवदास बनने का शौक है मुझे...

मगर थोड़ा पागलपन suit करता है..
तुमपर जैसे रूखापन suit करता है..
ताकि मेरे आने वाली novel में
तुम ही नायिका बन सको...

पर जो भी तुमको...
दिवाली मुबारक!!!

Sunday, September 14, 2008

पागल धब्बा

याद है तुम्हे...
तुम्हारे नाम से
पूरी कॉपी भर दिया करता था....

"ह्म्म्म.... पागल तो तुम बचपन से ही थे.."

और तुम मेरी कविता... जब मैं तेरह साल का था..
और तुम...

"तुमसे उम्र में पूरे एक सौ एग्यारह दिन बड़ी.."

और height में पूरे ग्यारह पॉइंट एक centimeter छोटी...!!!

"ह्म्म्म... याददाश्त अच्छी है...."

तुम अच्छी हो.... याद्दाश्त तो normal है...
मेरी तरह...

"याद्दाश्त के बहाने अपनी तारीफ मत करो...
मैं दृष्टि शर्मा... जो कि एक डॉक्टर हूँ...
खुदा को हाज़िर-नाज़िर मानकर...
वगरह-वगरह को वगरह-वगरह मानकर...
एलान करती हूँ...."


के वेद महाशय पागल हैं....

"अरे ये normal statement कैसे दे दिया patient ने...
diagnosis में गलती तो नहीं हो गयी.."

गलती तो हुई है.... patient ने गलत डॉक्टर चुन लिया...

"चलो ये तो मान लिया
के जनाब हैं तो patient ही...."

दिल का मरीज़ हूँ... और आँखों का भी

"ये फिल्मों वालें dialogue ना मारा करो...
बुरा लगता है.."

क्यूँ..

"झूठे लगने लगते हो..."

अरे... तो सच भी तो सुना होगा कभी...
वो सब भूल जाती हो क्या?

"याद है... मुझे..
जब तुमने कहा था....
तुम मेरा आकाश हो... आकाश का एक कोना हो...
तुममें अपने इश्वर को देखता हूँ मैं...
सुनता हूँ तुम में अपनी प्रथ्नाओं को..."

लेकिन सब तो इंग्लिश में कहा था ना...!!!

"नहीं इंग्लिश में सब बनावटी लगता है...."

अरे... अजीब हो...

"अजीब तो हूँ ही....
तुम्हे तब समझ ही नहीं पायी....
मुस्कुराती रही तुम्हारी सारी बातों पे..."


पर खींच के ले ही आया ना
तुम्हे...
और तुम भी आखिर बन ही गयी
मेरा आसमान.. और etcetra etcetra...!!

"और तुम मेरे career पे एक बंगाली धब्बा..."


और तुम मेरी ज़िन्दगी में...
मेरी छत..मेरा आसमान..

"मेरी मेहँदी.. और
मेहँदी के नीचे दबी..
मेरी जीवन-रेखा..."

मेरा वक़्त... मेरा सच...

"मेरा यह.. मेरा वोह...
मेरी mbbs... मेरी पढाई.."

मेरी अक्ल... तुम्हारी शक्ल
और शक्ल से बाहर तुम...
मेरी सिर्फ मेरी,
और शक्ल के अंदर मैं तुम्हारा
सिर्फ तुम्हारा!!!!!


तुम ही मेरी दृष्टि हो...!!!!

बहुत भारी है किताबें तुम्हारी
कभी कभी पता ही नहीं लगता
के डॉक्टर बनोगी या librarian...

"आप अपनी सोच जहाँ लगायेंगे
वहां कुछ ना कुछ तो problem
हो ही जाएगी
भला mbbs की क्या औकात
के आपको डॉक्टर बना दे..."

उड़ा लो मजाक... ना तो मेरे नंबर आते हैं
ना ही असल में मुझे कुछ आता है
बची खुची philosify का ही सहारा है
तो टांग मत खींचा करो

"हाँ.. ठीक बोलते हो
direct डंडे का ही इस्तेमाल सही रहेगा..."

जब ऐसे अपमानित करती हो
तो चोट सीधे दिल पे लगती है
और तुम बनना चाहती हो
ophthalmologist.... इलाज़ भी मुफ्त में नहीं
हो पायेगा!!!

"दिन रात पैसे पैसे
अपनी गरीबी दिखने का शौक लगा रखा है
जानते नहीं तुम दुनिया के सबसे
सबसे अमीर इंसान हो..."

कैसे...

"मैं जो हूँ... पास तुम्हारे
तुम्हारे सपनों से चिपकी रहती हूँ..."

और

"और चीर-फाड़ भी नहीं करती..."

जानता हूँ... सबसे प्यारा patient हूँ
तुम्हारा

"और सबसे अमीर भी...
ज़िन्दगी भर सिर्फ तुम्हारी
आँखें फोड़ती रहूंगी..."

और ठीक करती रहोगी.. नहीं??

"नहीं... अंधे रहोगे
तभी तो कहोगे...."

क्या...

"के तुम ही मेरी दृष्टि हो...!!!!"

Friday, July 25, 2008

..वरना मैं तुम्हारी होती..

रोक खुदको
तू भी पागल हो जायेगा

"रोक खुद को
तू भी पागल हो जाएगी"

ये क्या बोलती हो खुद से
मैं कहीं नाराज़ हो गया तो??

"अब क्या फर्क पड़ता है
तुम खुद भी तो इतने महत्वकांक्षी हो?"

पर तुम तो मेरी मीनाक्षी हो
बताया तो था मैंने तुम्हे
तुम्हारे सबसे करीब हूँ
शायद अपने जज्बातों में तुमसे
ज़रा सा गरीब हूँ

"भूल जाओ सब... किसे याद रहता है ये सब
मुझे है मगर..!!"

तो फिर बोलती नहीं क्यूँ..
ये नाटक पागलपन का
अब वक़्त कितना कम बचा है
अरे बच्ची... कब सोचोगी

"आजाद सा महसूस नहीं करते क्या
अब तुम खुद को?"

करता हूँ
झूठ क्यूँ बोलूं...
पर तुमने बाँध रखा था
तो बहुत अलग था मैं

"कुछ आएगा तो कुछ जायेगा भी.."

पर तुम सिर्फ कुछ तो नहीं थी
और मैं क्या सिर्फ कुछ दिनों
का खिलौना था

"कैसे ख़तम करें अब इसे??
सुझा दो तुम ही कुछ"

बात मत करो मुझसे
और दोहराती रहो बार-बार

"क्या??"

येही के
लहर उड़ा ले गयी
अपने मोती...

"..वरना मैं तुम्हारी होती..!!!"

भूख

असर है तुम्हारी बातों का
आज भी इतना
रह-रहकर पैदल पकड़ लेते हैं
मुझे अक्सर हर सुबह

बहुत दिनों से सोचा है के
अब तुम्हारे बारें में कुछ
सोचूंगा नहीं
और तुम्हारे बारें में हफ्ते भर से
कुछ ख़ास सोचा भी नहीं

फिर भी मूड कभी कभी
ख़राब हो जाता है
तुम वादे क्यूँ करती हो
क्यूँ इतना झूठ ओढ़ रखा है

किसकी ज़रूरतों को पूरा करो रही हो???
भूखा यहाँ हर कोई है
और गौर से देखो तो कोई भी नहीं

क्यूँकी भूख क्या है
आज तक कोई समझा भी नहीं है
सिर्फ पेट तक..
या उसके आसपास इकट्ठी नहीं है
सर पर भरी भरकम ताज भी नहीं है
दिल पे पड़ा हुआ पुराना बोझ भी नहीं है
भूख तो ज़रिया है
शायद खुद को
जिंदा रखने की एक सफल व्यवस्था!!