रात बहुत नहा चुकी है
अंधेरे में
अब आसमान भी बहुत साफ़ है
मेरे छत के घेरे में
बीच इनके कोशिश करता हूँ
के थोड़ा सूनापन
महसूस करुँ
तुमसे, तुम्हारे खयालों से
और तुम्हारे हादसे से
थोड़ा तो डरूं
पर वही किस्सा
तुम इतने पास लगती हो
लगता है
अभी बोल उठोगी
"अरे.. सपने में
कुछ भी बड़-बड़ाते रहते हो.."
देखो सुना फ़िर तुम्हे मैंने..
"अरे जब बोल रही हूँ..
तो सुनोगे ही..
चलो अब आँखें खोलो..
और प्लीज़ कुछ सेंसिबल बोलो"
इतना करीब कैसे कोई
क्या सच है क्या सपना
ख़बर ही नहीं लगती है..
"इतना उल्लू कैसे कोई
कब जागे कब सोये
ख़बर ही नहीं लगती है"
अच्छा... रात को देर तक जागता हूँ
तो मुझे उल्लू बना दिया..
"नहीं... थोड़ा टेढा समझे..
उल्लू हो इसीलिए... देर तक जागते हो.."
और तुम... तुम क्या हो..
"ये तो
तुम भी नहीं जानते हो..
पर कोई इतना प्यारा
जिसके सपने को भी सच मानते हो.."
खुशफ़हमी में हो..
"हाँ.. तुम्हारी खुश-फ़हमी हूँ..
पर तुम्हारी हूँ..."
यानी झूठ हो...
"शायद.. पर तुम्हारे लाखों
बेकार सच्चाइयों
से लाख़-गुनी सच्ची....
है के नहीं??"
हो के नहीं...
ये भी तो जानना ज़रूरी है..
"तुम में और मुझमें तो
सिर्फ़ ख़याल भर की दूरी है..!!"
फ़िर सुनाई क्यूँ देती हो
इतनी साफ़
जैसे तुम मेरे ही अंदर हो
मेरा ही एक कोई
काम्पलेक्स आद्ध्यात्मिक पुर्ज़ा
दूरी कितनी
ख्याल भर की या नहीं
नहीं जानता..
पर तुमसे अलग होने की बात मैं
नहीं मानता...
"अब आगे मेरे लिए कुछ भी बोलना
ठीक नहीं होगा.."
क्यूँ??
"प्यार पर से परदा उठने लगेगा..
कुछ दोस्त तुम्हारे
और मेरी सहेलियाँ
डर जायेंगे..
फ़िर थोड़े-थोड़े डर से
शायद हम दोनों भर जायेंगे.."
अब भी डरती हो..
"प्रेम करती हूँ.."
जवाब नहीं दोगी...
" सब कुछ तो तुम्हारा है..
उन्ही में छांटकर
कोई प्यारा सा जवाब चुन लो.."
छोड़ो
सब उलझाकर
टुकडों में बाँटकर
इस धुंधलेपन में बस मेरी धुन लो
"चलो.. फ़िर दोहराते हैं.."
क्या?
"यही के वक्त फ़िरता
मैं भी फ़िरी होती..
थोडी सी गिरी होती"
वक्त फिरता..
मैं भी फ़िरा होता..
थोड़ी देर मरा होता..
"लौट आती सब सवालों के
जवाब लिए"
अपने हाथों में
तुम्हारे लिए ख्वाब लिए..!!!
"और फ़िर तुम सो रहे होते..
सुबह इतनी..
बिना ये सोचे..
के मैं गाज़ हूँ की
सिर्फ़ एक हार्मलेस आवाज़ हूँ"
और फ़िर तुम सो रही होती..
अपने ख़्वाबों की चादर में..
अपने सोच के अस्तबल से
बढ़िया कीमती घोड़े बेचकर..!!
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