Tuesday, January 20, 2009

धूप-रौशनी-ज़िन्दगी

सुबह का वक़्त
उठा-पटक बहुत सारी
कौन किसपे कितना भारी??
रास्ते पे रौशनी के गट्ठे रखे हैं
उसपर काले-कलूटों की मारा-मारी!
और वो जो सबसे ऊपर हैं ना
दूर से फोटोग्राफी में मशगूल
अपने ही कैमरे में पकड़ लेता है..
मिटटी-शिट्टी,फूल-वूल !

और एक तुम भी हो
जो कम्बल से मुंह निकालकर.. सर्दियों में
गर्म रौशनी ढूंढती हो,
थोडी गर्माहट सूंघती हो !!

फिर दिन-भर अपने घर पर..
आला-दर्ज़े की धूप बन जाती हो !
और तुम्हारे रात भर सपनों से भरी-भरी पोटली भी
उठकर खिड़की के पास साँस लेती हैं !!

वक़्त बारीकी से तब खुरचता है,
तुम्हारे हाथों पे दिन भर की लकीरें...,
पिछली सारी खुशियों और तकलीफ़ों को सपाट करके..!!

ना जाने फ़िर से, कौन सी, कितनी लकीरें बांटता होगा
पर इनकी वजह से, धूप-रौशनी-ज़िन्दगी
इन सबके होने का मतलब
कोई पागल भी समझ जाता होगा...!!!!