तुम्हे अपने सर से उतारकर
किताबों की चादर पर झाड़ता हूँ
मैं फ़िर काग़ज़ फाड़ता हूँ !
दो तीन दिन.... और
"तुम्हारे बात करने का लहजा
बदल जाता है!"
हफ्ते भर...... में
"रंगों का और खाने का
शौक बदल जाता है !"
महीने भर बाद
पिछली कहानियाँ फ़िर से....
" ....कमरे के कोनों में गाड़ते हो
तुम फ़िर कागज़ फाड़ते हो"
नाक पर अंगूठा और
"सर पर कलम की नोक"
सोच की नई नई तरकीब
आजमाता हूँ
"खचर-पचर लिखते हो कुछ देर फ़िर..."
तुम्हारा स्केच बनाता हूँ ..!
फ़िर....
"फ़िर ..."
खाना खाने जाता हूँ ।
"हाँ... फ़िर जब आते हो तो
पेट भर नए किरदार "
खुले घुमते हैं जो...
आइडियास के जंगल में..!!
उन्हें तुम डराती हो....!
" अच्छा"
जब ज़ोर से दहाड़ती हो...!
फ़िर तुम कागज़ फाड़ती हो !!