Saturday, October 31, 2009

फिसला

ये रुकती हैं
दीवार पे बातें क्यूँ
आँखें टिकी
चेहरे पे रातें क्यूँ

ये घुट घुट के पत्थर
क्यूँ पानी में फिसला
थोड़ा टूट जाता
"मैं ठानी" में फिसला
ये अकडू अनाड़ी
टमाटर की गाड़ी
जो टपके तो पिचके
बिना आँख भिंचके
ये वादों की गड़बड़
ये मीठे से बड़बड़
"मैं जानूं हूँ सबकुछ"
नादानी में फिसला


कोई ना ये समझे
मेरे नखरे ढंग से
सभी की है चौखट
सभी बैठे तंग से
कोई कहता आलू
की फसलें उगाओ
कोई कहता मंडी
सुबह छान आओ
यही टोका-टाकी
ये बंगाली खांटी
ना समझे तराजू
पेशानी पे फिसला

ये रुकती है
दीवार पे बातें यों
मेरे साथ रहती है
आवाज़ ज्यों
मेरा वक्त खा लें
मेरी जाँ निकाले
हलक पे जो उतरे
तो माथे झुका लें
ये हकले की नज्में
बस उसकी समझ में
कहीं काश होता
वो लिखता वो गा ले

वो रहता था पाँचों
सी ऊँगली बराबर
कहीं कुछ ग़लत था
वो नम्बर या टावर
वो अपने खुराफात
की काली शक्लें
को ऐसा नहीं था
के घंटे भर ढक ले
वो वार्निंग पे वार्निंग
को ठुकराता साला
खुला रक्खा दिल को
थोड़ा लाल-काला
थोडी सी कबाडी
थोड़ा लोहा पिघला
वो अँधेरा कोहरा
वो धुंधला सा निकला

पुरानी कहानी
वही ज़िंदा रानी
मेरी सौ पहेली
हैरानी में फिसला !!!!