Tuesday, October 6, 2009

तुमने जो चश्मा पहना था

(कल तक ये कहता था) ...

पेपर-मशी से बन गई
आँखें तुम्हारी भारी सी
काली सी पुतली सज गई
बादल की नीली स्याही सी

पलकें जो झपकीं चौंककर
ये धूप परपल हो गई
जो देर तक झपकीं नहीं
मन्नत सी पागल हो गई


(और अब)

चेहरे पे दो-दो खिड़कियाँ
झाँकतीं उनमें से तुम
आंखों की खबरें दब गयीं
बेखबर सारा हुजूम

पढ़ते थे जिनको शौक से
दिन रात लम्हे चूमकर
कैसे पढेंगे आयतें वो
जिल्द से मरहूम कर

(अरे बोलो तो मुझे) ....

जो दूर का दिखता नहीं
तो पास सब ले आऊंगा
जो पास का दिखता नहीं
तो दूर सब ले जाऊँगा

मैं धुंध भी बन जाऊंगा
मैं धूप भी बन जाऊंगा
बारिश पड़े तो पानी
जो ठण्ड तो जम जाऊंगा

(ज़रा गौर तो करो )...

हाँ! खूबसूरत लगती हो पर
आंखों पे शर्तें लग गई
इन बातूनी सी नज़रों पर
पानी की परतें लग गई

(और तो और )...

संभालोगी कैसे भला
ये भारी-भरकम फ्रेम तुम
आंखों की इतनी फिक्र है
पर नाक लावारिस हुकूम!!

(तो मुद्दे की बात ये )....


अगर ऐतराज़ ना हो तो ...
मेरे सफा को मोड़कर
सो जाओ पलकें ओढ़कर

वो दुनिया ही क्या दुनिया
जहाँ तुम्हे देखना पड़ता है
आंखों से आँखें जोड़कर!!