बात उन दिनों की है..
जब बस्ता लटकाए..
चेहरे पे नींद और आँखों में
खीज भरकर...
सुबह-सुबह साढ़े-छः बजे...
पकड़ा करते थे बस इंदौर की.. महू से...
वो भी पढ़ते थे हमारी ही coaching में..
ना उनको ना हमको आता
कुछ interest था teaching में..
बस बुराईयाँ करते थे.. टीचरों की..
और दिन-रात पढने वालों खच्चरों की...
ठंडी हवा.. सर्दी-जुकाम..
और जबान पे बस उसका ही नाम..
हाय.. वो दिन भी आया..
जब बस हमारा..
एक और बस से टकराया..
साफ़ साफ़ शब्दों में..
मरने से पहले..
वो "help me" भी ना चिल्ला सकी..
और ना ही मैं
झल्ला सका उस बस पर...
या उस अगली बस पर...!!
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