बैठा था यूँ ही..
शतरंज खेल रहा था..
चाल मेरी ही थी..
सोचने में व्यस्त..
अस्त-व्यस्त..
कहा मैंने "यार
थोड़ी चाय-शाई तो भिजवाओ"..
उसने कहा.."अब मैं खेलूं यहाँ क़ि
चाय बनाने जाऊं.."
मैंने सोचा "चाय की क्या ज़रुरत है..
जब बैठी हो तुम सामने.."
और कहा मैंने.. "खेल वगरह तो लगा ही रहेगा..
चाय बार-बार
थोड़े ही ना मिलेगी.. वो भी मुफ्त में.."
वो बोली
" जनाब आप हार जाओ जल्दी-जल्दी..
बस चाय हाज़िर हो जाएगी.."
बस क्या था फिर..
अगली ही चाल में तपाक से..
ले आया अपना राजा उसकी रानी के सामने..
जहाँ से भागने की कोई जगह नहीं...
थोड़ी देर देखती रही वो मुझे.. अपलक..
बस वहीँ मर गया था मैं..
और आज तक दुबारा कोई चाल नहीं चली..
चाय तो मिल गयी..
पर दुबारा वो आँखें नहीं मिली॥
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