Tuesday, December 4, 2007

सुबह थी.. झूठी सी वो

और मिली जगह कोई...
जैसे हंसी और किरकिरी.
धुप में वो और भी..
छरहरी लगने लगी..

जो ना उठता इस सुबह तो..
ये सुबह दिखती नहीं..
खूबसूरत थी सुबह और..
खूब वो थी और भी...

देखता उसको रहा जब..
मैं लगाके टकटकी..
वो दबी आवाज़ में..
एक पेड़ सी लगने लगी..

जाग उट्ठी कल्पना से...
सांस भी लेने लगी...
वो मुझे खुद से अलग..
अपनी तरह लगने लगी..


सुबह थी.. झूठी सी वो..
शाम भी झूठी लगी..
वो सामने हंसने लगी...
बातें मेरी सुनकर सभी..

वो आत्मा से जब निकलकर
मेरी आत्मा में सो गयी..
सुबह थी.. झूठी सी वो..
शाम भी झूठी लगी..

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