Thursday, December 13, 2007

बड़े कवि हो.. grammer तो ठीक कर लो

"कल तुम्हारी paintings देखी मैंने..
सारी....... "

अच्छा है..


"नहीं... अच्छी हैं...
बड़े कवि हो.. grammer तो ठीक कर लो"

मैं paintings की बात नहीं क़र रहा था..

"मगर मैं तो क़र रही थी.. ना.
चलो एक बात बताओ..
एक छोटी सी ख़ास बात नोट की है मैंने.."

अब तुम्हारी खासियतों ने हमारी
आँखों पर पर्दा डाल दिया है..
कुछ गलत-शलत हो गया हो..
खुद ही ठीक कर लो..

"अरे ऐसा कुछ नहीं..
बस ये बताओ की किसी भी
character की आँखें क्यूँ नहीं बनाते..?"

पहले ये बताओ इसमें बुराई क्या है..

"रंग-रोगन.. साज-सज्जा... सब फीकी-फीकी लगती है..
आँखों से ही तो express करना होता है..
है कि नहीं...."

simple सा reason है..

तुम्हारी आँखें नहीं बना पता..
कितनी भी अच्छी आँखें बना लूं..
तुम्हारे चंचल नयनों सी बात बन ही नहीं पाती..
सो मिटा देता हूँ...

"अच्छा जी... मक्खन तो नहीं लगाया जा रहा?"

ये काम तो आपका है..

सबके लिए ये वीरानी है..
मैं तो हर एक किरदार में
तुम्हारी आँखें देख ही लेता हूँ...


"ऐसा मत बोला करो..शर्मा जाती हूँ..
अपनी आँखों से ही प्यार होने लगता है..
और तुम धुंधले होते जाते हो.."

ऐसा जैसे.. तुममें और मुझमें कुछ फर्क ही ना हो..

"नहीं.. ऐसे जैसे..!!
'ऐसा जैसे' नहीं...
समझे.."

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