Tuesday, March 30, 2010

रेत की बात...डर के साथ

उसे फिर आँखों पर
पट्टी चढ़ाकर
उतार दिया रेत पर

"क्यूँ??
रेत से तो वो डरता भी नहीं था।!!"

तुम्हे पता है इतना...?

"इतना तो पता ही है
के जब भी उसे कुछ डराता है
वो भागकर तुम्हारे पास ही आता है !"

बिकुल सही॥!!

"और तुम डर उतारने की
ताबीज़ बन जाते हो "

थोडा थोडा ठीक है...

"पिछली बार उसे हाथ पैर बाँध..."

हाँ हाँ... तालाब में छोड़ दिया था... !!

"और वो भी तब जब हम दोनों को पता है..."

के उसे तैरना नहीं आता है

"फिर तुमने कहा---
फेफरों में डर की जगह
पानी भरा रहे...
वही अच्छा....!"

ये भी
के इस बूढ़े दिमाग में
थोड़ी जवानी भर जाए तो अच्छा

"पहली बात ये के मैं बूढी नहीं हूँ....
दूसरी....

के अब के क्यूँ रेत पे उतारा है उसे ?"

वो इसीलिए... क्यूंकि...

"एक मिनट... इस बार तो
हाथ पैर भी खुले रखे हैं...
क्या तुक बनता है "

तुक ये के उसे तुक्कों से डर लगता है...:)

"कहीं मैंने ये भी सुना है के...
तुम्हे मुक्कों से डर लगता है..!"

तुक्के से मतलब ऐसे के...
तुक्के से कहीं फिसल ना जाये...!


"तो फिर रेत पर क्यूँ डाला उसे?
फर्श पर तेल डालकर
छोड़ देते दो दिन के लिए...!!"

फिर तो बस उसके फिसलने का डर निकलता

"अहाँ... मगर...आगे बोलो "

सोचो... दिमाग की अलमारी खोलो

"नहीं समझ रहा.... खुलकर बताओ॥"

तो बात ऐसी है के ...
बहुत खुले में रहता है वो
खुला खुला सा रहता है वो

"तो शायद उसके पैर
एक दिन से ज्यादा
किसी फर्श पर नहीं टिके॥!!"

हम्म... और उन्हें ये पता ही नहीं...

"के घर जैसी कोई चीज़ भी होती है..."


हाँ... और हर एक दिन नए
मैट, मार्बल और मिटटी
पर चिपक चिपक कर...........


"वो भ्रष्ट हो गए हैं....
और trust करना भूल चुके हैं...
है ना ?"


हाँ... तभी रेत पर आँख मूंदें
हर तरफ...

"एक जैसा ही महसूस करेंगे
वो पैर जो आज तक एक
pair जूते नहीं सहला पाए"

हम्म... और हाथ पैर खुले इसीलिए...

"ताकि गिरे तो फिर उठे...
आराम से चल पड़े
कुछ देर पट्टी भी उतारे
और गिन ले सारे तारे॥"

exactly.. क्यूंकि इस बार
डर पर नहीं....
डर के जड़ पर वार है....!!

"सवाल अलग है...और
इलाज़ असरदार है...!!"

तो आज का कुल ग्यान

"यही के वो जिसे भेजा है वो
मेरा ही डर है..."

और मैं वही रेत हूँ...

"जहाँ ज़िन्दगी के बाकी दो दिनों तक
आँखों पे पट्टी बांधकर
खड़ी रहने वाली हूँ "

जहाँ गिरने वाली हो...
डरने
वाली हो
और रेत को जिंदा करने वाली हो...!!

Monday, March 8, 2010

एक कम्पन था हुआ दो मूक शब्दों से कहीं....!!

एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं
थे वधिर माने ये कर्ण
फिर भी कंपा था कुछ वहीं

ना राख थी ना धुल थी
ना धूम्र ही तो था कहीं
फिर भी कहीं दुर्गन्ध है
मन है जला कल्पित नहीं

एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं....!!

थी धैर्य कि क्यूँ वन्दना
जब प्रेम का कटता तना
चीत्कार करता था के
चित्रों में था उसका मन सना

वो सौम्य सी उठती
तरंगों में तुम्हारा गर्व था
बस प्रेम की वाणी में
जो झोंकता यूं सर्व था

मैं ह्रदय कि चाक में
रमता यूं ही ढोंगी बना
पर ढोंग में भी प्रेम था
जिसको किया तुमने मना

अब आलाप की ये वर्तनी
जानती तुमको नहीं
एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं......!!!



देखा तुम्हे हर कण में
यूं के एक शंका एक धवल
एक नयन के फूटने की
देर थी जाता संभल

मैं रोक रखूँ दृश्य को
इस झंझावत अदृश्य को
रोकूँ मैं कैसे ज्ञान-कुंठित
मुक्त-भक्त इस शिष्य को

वो तो करता अनुसरण है
जिसमें दिखता उसको मन है
वो देव ना जाने दैत्य ना जाने
तुमको माने अपना धन है

वह प्रणय निवेदन करता है
तुम मुस्कुराती बस रही
एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं......!!



यह क्या है जो तुम देखती
हो आधी गहरी दंग से
यह कैसे उछला पूर्ण
गर्जन दाब मनो मृदंग से


शैशव में तेरी चेतना का
भार मन ने जड़ लिया
अस्थियों में दस युगों का
प्रण-समर्पण भर लिया

अब वार करना है मुझे
इन शब्दों के प्रपंच पर
और है जलानी दर्प की
लंका मुझे इस मंच पर

यह आत्मा से उपजी है
यह मौन में ही है बही
एक कम्पन था हुआ
दो मूक शब्दों से कहीं ....!!