Thursday, November 12, 2009

बारिश कि मर्ज़ी

ये बारिश कि मर्ज़ी
जिसे चाहे छूले
किसे है पकड़ना ,
कहाँ रस्ता भूले !

वो अपने खिलौनों
को बादल है बकती
वो रस्ते छतों पर
जहाँ पैर रखती
वहीँ पिघली जाती है
थोडी झिझक में
सुबह नमीं में
पहाडों के चकमें।

ये पत्थर के ऊपर
ये पत्तों के ऊपर
भिखारी भी भीगे
भीगे पैरा-ट्रूपर
कहीं लोग तरसें
वहां ना ये बरसें
गरज के ये बोले
मेरे ऐसे तेवर!!


तेरे मेरे सर पर
ये बादल कि छतरी
मेरे बाल गीले
तेरी आँखें मठरी
पलक पर ये बूँदें
तू एक आँख मूंदे
फंसी तेरी टिप-टिप में
साँसों कि गठरी

ये बारिश कि मर्ज़ी
किसे दिल में भर ले
किसे रक्खे सूखा
किसे अपना कर ले
किसे धुप से अपनी
उलझन बताये
किसे चलते रहने की
टेंशन सुनाये

ये बारिश कि मर्ज़ी
बिजली के छाले
कहाँ खुल्ला रक्खे
कहाँ वो छुपा ले
वो हर एक दुआ
जो उसे थी बुलाती
वो उम्मीद का ख़ुद को
चेहरा बना ले!!!



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